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गुरुवार, 15 अक्तूबर 2020

मोदी जी का भारत

    
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मोदी जी योगी जी मोहन भागवत का भारत
अम्बेडकर जी का भारत

    मेरे देश में सभी साधू संत धर्म गुरु अपनी मेहनत की खाने लगे हैं सत्य-वचन कहने लगे हैं
    उन्होंने सिध्ध कर दिया संसार निर्माता का उपासक मुफ्त की दान-उपहार की धन राशी से अपना जीवन ब्यतीत नहीं करता उसके पुजारी उपासक मेहनती होते हैं स्वयं भी  खाते है दुसरे जरुरत मंदों को भी खिलाते हैं
    एक जमाना था जब लोगों से दान-उपहार लेकर लोगों की सहायता किया जाता था लेकिन बहुत से ऐसे लोग भी थे जिन्होंने लोगों से दान-उपहार की धन राशी तो लिया लेकिन लोगों की जैसी सहायता करनी चाहिए वैसी सहायता नहीं की केवल दिखावे के लिए कुछ दान धर्म के कार्य किये बाकी धनराशी अपने निजी कामों में खर्च कर दिए
    एक वो भारत एक ये भारत कितना अंतर है
आज हमें बड़ी प्रसन्नता होती है श्रेष्ठ भारत को देख कर 
    संसार निर्माता का उपासक परिश्रमी होते हैं अपनी परिश्रम की खाते हैं केवल सत्य वचन कहते हैं यह उन्होंने सिध्ध कर दिया उन्होंने प्रत्येक मनुष्य को सन्देश दिया है भले ही आप बहुत बड़े ज्ञानी उपासक हो लेकिन आपको परिश्रम करना होगा बिना परिश्रम आपको परिणाम प्राप्त नहीं मिलेगा वह भी कार्य से सम्बंध्धित सही ज्ञान का होना भी आवश्यक है 
    वेद-पुरानों कुरानों में बाइबल गुरुग्रंथ में वर्णित कथनों के अतिरिक्त अन्य कथनों को वेद-पुराण कुरानों बाइबल गुरुग्रंथ का हिस्सा नहीं बनाते
    वैज्ञानिक दृष्टि से अपने कथनों का सत्यापन करते हैं
किसी को अपने पैरों के नीचे नहीं झुकाते गरीबों जरुरत मंदों को दान देने हेतु प्रेरित करते हैं लेकिन स्वयं के दान कोष में धन जमा कराके सहयता की बात नहीं कहते 
    मंदिरों मस्जिदों की संख्या बहुत कम हो गयी है
    अध्यात्मिक रैलियां कम होने लगी है चन्दन तिलक लगा कर मजहबी टोपी पहनकर हो हल्ला करने वालों की संख्या कम हो गयी
    हिन्दू मुसलमान सिख्ख ईसाई धर्म प्रचार का विचार नहीं रखते सत्य कहने-सुनने का स्वभाव रखते है
    साधारण मनुष्यों द्वारा कई गलतियाँ होने पर भी शांति-पूर्वक उत्तर देते हैं मार्गदर्शन देते है 
    अद्यात्मिक ब्यक्तियों द्वारा बल का प्रयोग कर अपनी कथन को जबदस्ती मनवाते नहीं है 

मेरा देश ऐसे राष्ट्र की घोर निदा करता है ऐसे आचरण इस देश के नागरिक न्यायाधीशों की नहीं है 

।। रामचरितमानस ।। बालकाण्ड -13. श्री गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस भावार्थ सहित चौपाई : * बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥ खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥1॥ भावार्थ:-देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो विष्णु भगवान्‌ हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान्‌ विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे?
॥1॥ * संभुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥ अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥2॥ भावार्थ:-फिर शिवजी के वचन भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं। सती के मन में इस प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता था॥

2॥ * जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥ सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥3॥ भावार्थ:-यद्यपि भवानीजी ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए। वे बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिए॥3॥ 

* जासु कथा कुंभज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥ सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥4॥ भावार्थ:-जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं

॥4॥ छंद : * मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं। कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥ सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी। अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥ भावार्थ:-ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्मा रूप भगवान्‌ श्री रामजी ने अपने भक्तों के हित के लिए (अपनी इच्छा से) रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है। सोरठा : * लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु। बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥ भावार्थ:-यद्यपि शिवजी ने बहुत बार समझाया, फिर भी सतीजी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महादेवजी मन में भगवान्‌ की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले-

॥51॥ चौपाई : * जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥ तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥1॥ भावार्थ:-जो तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड़ की छाँह में बैठा हूँ

॥1॥ * जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥ चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बेचारु करौं का भाई ॥2॥ भावार्थ:-जिस प्रकार तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, (भली-भाँति) विवेक के द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना। शिवजी की आज्ञा पाकर सती चलीं और मन में सोचने लगीं कि भाई! क्या करूँ (कैसे परीक्षा लूँ)?

॥2॥ * इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥ मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥3॥ भावार्थ:-इधर शिवजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या सती का कल्याण नहीं है। जब मेरे समझाने से भी संदेह दूर नहीं होता तब (मालूम होता है) विधाता ही उलटे हैं, अब सती का कुशल नहीं है

॥3॥ * होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥ अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥4॥ भावार्थ:-जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मन में) ऐसा कहकर शिवजी भगवान्‌ श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं, जहाँ सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे
॥4॥ दोहा : * पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप। आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥ भावार्थ:-सती बार-बार मन में विचार कर सीताजी का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे (सतीजी के विचारानुसार) मनुष्यों के राजा रामचंद्रजी आ रहे थे

॥52॥ चौपाई : * लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥ कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥ भावार्थ:-सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गंभीर हो गए, कुछ कह नहीं सके। धीर बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजी के प्रभाव को जानते थे

॥1॥ * सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥ सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥2॥ भावार्थ:-सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की जानने वाले देवताओं के स्वामी श्री रामचंद्रजी सती के कपट को जान गए, जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी हैं

॥2॥ * सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥ निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥3॥ भावार्थ:-स्त्री स्वभाव का असर तो देखो कि वहाँ (उन सर्वज्ञ भगवान्‌ के सामने) भी सतीजी छिपाव करना चाहती हैं। अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, श्री रामचंद्रजी हँसकर कोमल वाणी से बोले

॥3॥ * जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥ कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥4॥ भावार्थ:-पहले प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं?

॥4॥ दोहा : * राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु। सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥53॥ भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर सतीजी को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई (चुपचाप) शिवजी के पास चलीं, उनके हृदय में बड़ी चिन्ता हो गई

॥53॥ चौपाई : * मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥ जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥1॥ भावार्थ:-कि मैंने शंकरजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्री रामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सतीजी के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गई

॥1॥ * जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥ सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥2॥ भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी को दुःख हुआ, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। (इस अवसर पर सीताजी को इसलिए दिखाया कि सतीजी श्री राम के सच्चिदानंदमय रूप को देखें, वियोग और दुःख की कल्पना जो उन्हें हुई थी, वह दूर हो जाए तथा वे प्रकृतिस्थ हों।)

॥2॥ * फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर बेषा॥ जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥3॥ भावार्थ:-(तब उन्होंने) पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ श्री रामचन्द्रजी सुंदर वेष में दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्री रामचन्द्रजी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं

॥3॥ * देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥ बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥4॥ भावार्थ:-सतीजी ने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक से एक बढ़कर असीम प्रभाव वाले थे। (उन्होंने देखा कि) भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता श्री रामचन्द्रजी की चरणवन्दना और सेवा कर रहे हैं

॥4॥ दोहा : * सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप। जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥54॥ भावार्थ:-उन्होंने अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं। जिस-जिस रूप में ब्रह्मा आदि देवता थे, उसी के अनुकूल रूप में (उनकी) ये सब (शक्तियाँ) भी थीं

॥54॥ चौपाई : * देखे जहँ जहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥ जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥1॥ भावार्थ:-सतीजी ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे

॥1॥ * पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥ अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥2॥ भावार्थ:-(उन्होंने देखा कि) अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु श्री रामचन्द्रजी की पूजा कर रहे हैं, परन्तु श्री रामचन्द्रजी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित श्री रघुनाथजी बहुत से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे

॥2॥ * सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भईं सभीता॥ हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥3॥ भावार्थ:-(सब जगह) वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीताजी- सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गईं। उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गईं

॥3॥ * बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥ पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥4॥ भावार्थ:-फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी न दिख पड़ा। तब वे बार-बार श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ श्री शिवजी थे

॥4॥ दोहा : * गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात। लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥55॥ भावार्थ:-जब पास पहुँचीं, तब श्री शिवजी ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजी की किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो॥55॥ कम देखें

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